
रिपोर्ट : विक्रम सेन, वरिष्ठ संपादक, खुलासा लाइव
नई दिल्ली । सऊदी अरब ने जब अपनी 50 वर्ष पुरानी ‘कफाला प्रणाली’ (Kafala System) को समाप्त करने की घोषणा की, तो यह केवल एक प्रशासनिक सुधार नहीं था — यह मानवाधिकार, श्रम-समानता और आधुनिक शासन की दिशा में एक ऐतिहासिक मोड़ था।
जिन लाखों प्रवासी मजदूरों की पहचान अब तक केवल “स्पॉन्सर से बंधे श्रमिक” के रूप में होती थी, वे अब कानूनी रूप से स्वतंत्र कामगार कहलाएंगे।
यह निर्णय सऊदी अरब के विज़न 2030 का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था को तेल पर निर्भरता से निकालकर विविध और मानवीय विकास की दिशा में ले जाना है।
कफाला : आधुनिक दासता का कानूनी रूप
1950 के दशक में जन्मी कफाला प्रणाली ने खाड़ी देशों को लाखों विदेशी मजदूरों की सस्ती श्रमशक्ति दी।
लेकिन इसके पीछे छिपा था एक असंतुलित अनुबंध, जिसमें मजदूरों की कानूनी हैसियत नियोक्ता (कफील) की “इजाज़त” पर टिकी रहती थी।
इस व्यवस्था ने प्रवासियों को ऐसा बना दिया जो ना नौकरी बदल सकते थे, ना अपने देश लौट सकते थे, और ना ही किसी कानूनी उपाय तक पहुँच सकते थे।
संयुक्त राष्ट्र, ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों ने इसे “Institutionalized Exploitation” की संज्ञा दी — एक ऐसी प्रणाली जो 21वीं सदी में भी गुलामी की छाया को जीवित रखे हुए थी।
सुधार की राह : जब आधी सदी की बेड़ियाँ टूटीं
जून 2025 में जब सऊदी सरकार ने इस प्रणाली को खत्म करने की घोषणा की, तो यह केवल प्रशासनिक आदेश नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक परिवर्तन का प्रतीक बना।
अब नए कानून के तहत —
श्रमिक बिना नियोक्ता की अनुमति के नौकरी बदल सकते हैं,
एग्जिट वीज़ा की बाध्यता समाप्त कर दी गई है,
और श्रमिकों को न्यायिक सुरक्षा व श्रम अधिकार प्राप्त होंगे।
यह परिवर्तन लगभग 1.32 करोड़ विदेशी कामगारों को प्रभावित करेगा — जिनमें भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और फिलीपींस के नागरिकों की प्रमुख हिस्सेदारी है।
मानवाधिकार और आर्थिक नीति का संगम
यह सुधार दो स्तरों पर क्रांतिकारी है —
पहला, यह मानव गरिमा की पुनर्स्थापना का प्रतीक है;
दूसरा, यह सऊदी अरब की आर्थिक विविधता और वैश्विक साख की दिशा में निर्णायक कदम है।
‘कफाला’ के अंत से सऊदी अरब अंतरराष्ट्रीय श्रम बाजार में उस छवि से बाहर निकलेगा, जिसे लंबे समय तक “कठोर नियोक्ता राष्ट्र” कहा जाता रहा।
अब यह सुधार श्रमिक स्वतंत्रता और निवेशक विश्वास दोनों को एक साथ मजबूत करेगा।
प्रवासी श्रमिकों का योगदान : खाड़ी की धड़कन
आज सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था का लगभग 42% हिस्सा प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर है।
निर्माण, तेल, घरेलू सेवाएँ, स्वास्थ्य, आतिथ्य और कृषि — हर क्षेत्र में ये मजदूर देश की वास्तविक रीढ़ हैं।
भारत और बांग्लादेश से आने वाले लाखों कामगार न केवल अरब अर्थव्यवस्था को गति देते हैं, बल्कि अपनी मेहनत से हर साल अरबों डॉलर का प्रेषण (Remittances) अपने देशों को भेजते हैं।
कफाला सिस्टम का अंत इन कामगारों की सामाजिक स्थिति को नयी प्रतिष्ठा प्रदान करेगा।
विज़न 2030 और सउदीकरण की चुनौती
सऊदी सरकार की “Saudization Policy” का उद्देश्य देश के युवाओं को रोजगार के अधिक अवसर देना है।
हालाँकि, यह नीति विदेशी श्रमिकों की संख्या घटा सकती है, परंतु “कफाला उन्मूलन” से मिलने वाली कानूनी पारदर्शिता और श्रमिक सुरक्षा विदेशी निवेशकों और वैश्विक एजेंसियों के लिए भरोसे का संकेत है।
विज़न 2030 के तहत शुरू हुए मेगा प्रोजेक्ट्स — जैसे ‘नियोम सिटी’, ‘रेड सी प्रोजेक्ट’, और ‘स्मार्ट इकोनॉमिक जोन’ — अब ऐसे श्रम ढाँचे में संचालित होंगे जहाँ अनुशासन के साथ मानव अधिकार भी सुरक्षित होंगे।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य : उदाहरण या अपवाद?
कफाला प्रणाली केवल सऊदी अरब तक सीमित नहीं थी; कतर, कुवैत, जॉर्डन और यूएई में भी इसके विभिन्न रूप प्रचलित रहे हैं।
कतर ने 2020 में और बहरीन ने 2017 में इस प्रणाली में सुधार किया था।
अब सऊदी अरब द्वारा इसका पूर्ण उन्मूलन पूरे खाड़ी क्षेत्र में एक मिसाल बन सकता है।
अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मत है कि यह निर्णय “Modern Arab Governance” की नई परिभाषा लिखेगा — जहाँ आर्थिक विकास और मानवीय मूल्य साथ-साथ चलेंगे।
यह क़दम केवल सुधार नहीं, पुनर्जागरण है
सऊदी अरब का यह निर्णय उस दिशा में पहला ठोस कदम है जहाँ
“कामगार को केवल संसाधन नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार वाला व्यक्ति” माना जाएगा।
यह परिवर्तन उन अनगिनत श्रमिकों के लिए सम्मान की पुनर्प्राप्ति है,
जो दशकों से “वीज़ा की मुहर” और “कफील की अनुमति” के बीच बंधक बने रहे।
दुनिया भर के देशों के लिए यह एक संदेश है कि आर्थिक विकास तभी स्थायी हो सकता है, जब उसमें श्रम का सम्मान और न्याय की समानता समाहित हो।
अंतत: कफाला का अंत, केवल एक देश की नीति का परिवर्तन नहीं —
यह मानवता के श्रम इतिहास में आज़ादी की नई परिभाषा है।
और यह परिभाषा उस सत्य को स्थापित करती है कि —“विकास का असली मापदंड जीडीपी नहीं, बल्कि वह गरिमा है जो हर मेहनतकश को मिलती है।”